रविवार, 28 जून 2009

जाति-संकिरनता और सामाजिक न्याय


एक जमाना था जब ठाकुर होने का गुमान इतना होता था की वह उंच नीच नहीं सोचता था और अपनी हबस को पूरा करने के लिए कुछ भी कर बैठता था . शायद उसे यह अभिशाप रहा होगा की वह जिसके साथ रहेगा उसका भला नहीं देख पायेगा . और इससे इतर भी कुछ लोग इस कौम में है जिससे अभी इनका मान बचा हुआ है . फूट डालना इनका धरम है करम है वफादारी जाती से इतेर बमुश्किल ही नज़र आती है .
आज जब लोकतंत्र का जमाना है तब भी इनकी मानसिक दशा वैसी ही है. वैसे तो इनका रोब दाब बहुत घटा है पर लोंगो की इज्जत लुटाने में इन्हे मज़ा आता है जिसकी गवाह भारतीय फिल्मे है .यही कारन है की आजाद भारत में आबादी और संकट में जुझ रहे लोंगो की लम्बी जमात एक जुट इनके खिलाफ नहीं हो पाती है.
सामाजिक न्याय की तकते इनकी गुलामी से आज तक ऊबर नहीं पाई है जिसके लिए नए आन्दोलन की जरुरत आ गयी है जिसमे उन लोंगो की जरुरत है जिनसे निक्कम्मे और नकारे राजनेता हरप न पायें .

4 टिप्‍पणियां:

  1. manraj ji blog ki duniya me apka swgat hai,bat yahan thakur ki nahi hai ek mansikta ki hai,jise hame aur ap ko badani panegi

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  2. हिंदी भाषा को इन्टरनेट जगत मे लोकप्रिय करने के लिए आपका साधुवाद |

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  3. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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