रविवार, 23 मई 2021

बुधवार, 12 मई 2021

झोली खोलने वाले विदेशों में बसे हिंदुस्तानी

 

भारत के कोरोना संकट में मदद के लिए अपनी झोली खोलने वाले विदेशों में बसे हिंदुस्तानी

  • करिश्मा वासवानी
  • बीबीसी संवाददाता
शौर्य वेलागापुडी
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शौर्य वेलागापुडी

सिंगापुर में स्टार्ट अप कंसल्टेंट का काम करने वाले शौर्य वेलागापुडी आख़िरी बार भारत में तब रहे थे जब वे आठ साल की उम्र के थे.

तब उनका परिवार नई ज़िंदगी के लिए भारत छोड़कर अमेरिका चला आया था.

लेकिन 32 साल के शौर्य कहते हैं कि वे अपने देश से आज भी बेहद गहराई से जुड़े हुए हैं. इसलिए उन्होंने क़सम ली है कि वे अपनी उम्र भर की बचत भारत में कोरोना महामारी से राहत के लिए चलाए जा रहे कार्यों में दे देंगे.

हाल ही में भारत में उनके एक परिवारवाले की मृत्यु हुई है.

निजी जीवन में हुए इस नुक़सान से उन्हें भारत में दूसरे ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने का विचार मज़बूत हुआ.

भारतीय मूल के लोग विदेशों में अपने देश के लिए कैसा महसूस करते हैं, ये बताते हुए शौर्य एक मशहूर बॉलीवुड गीत का ज़िक्र किया.

उन्होंने कहा, "ये एक ऐसा जुड़ाव है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है."

शौर्य लगभगर हर रोज़ पाँच हज़ार डॉलर का अनुदान दे रहे हैं. उनका कहना है कि वे तब तक ऐसा करते रहेंगे जबतक कि उनके पैसे ख़त्म न हो जाए.

वे अपना पैसा भारत में काम कर रही ग़ैर-सरकारी सहायता एजेंसियों को भेज रहे हैं.

शौर्य कहते हैं, "मुझे परवाह नहीं, चाहे मेरा दिवाला ही क्यों न निकल जाए. लोगों को ये समझने की ज़रूरत है कि वहां कितने मुश्किल हालात हैं."

इसी भावना के तहत लाखों डॉलर की रक़म दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत आ रही है.

इनमें से ज़्यादातर पैसा विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोग भेज रहे हैं.

हरजीत गिल

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हरजीत गिल

'हम में से हरेक का परिवार वहां पर है'

भारतीय मूल के कुछ बड़े नाम जैसे गूगल के सुंदर पिचाई, माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला, सिलिकन वैली के अरबपति इन्वेस्टर विनोद खोसला जैसे लोगों ने अपने क़दम पहले ही इस दिशा में बढ़ा दिए हैं.

सिंगापुर के हेल्थ केयर ट्रेड एसोसिएशन 'एपीएसीएमईडी' की सीईओ हरजीत गिल कहती हैं, "हमें पूरे भारत से मदद के लिए संदेश मिल रहे हैं. ख़ासकर दिल्ली से, हमें ऑक्सीजन, पीपीई किट्स, दवाएं, वेंटीलेटर्स या अस्पताल में काम आने वाली किसी भी चीज़ के लिए कहा जा रहा है."

हरजीत गिल भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक हैं. वो कहती हैं कि सभी तरफ़ से मदद मिल रही है क्योंकि भारतीय मूल का शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जो इससे अछूता रह सका हो.

"हर किसी का दिल टूटा हुआ है. हम में से हरेक का परिवार वहां रहता है. हम बस उनकी मदद का रास्ता खोज रहे हैं."

दुनिया में भारतीय लोग बड़ी संख्या में विदेशों में बसे हुए हैं. माना जाता है कि क़रीब दो करोड़ भारतीय दुनिया भर में फैले हुए हैं.

ये समुदाय एक दूसरे से क़रीब से जुड़ा हुआ रहता है. भले ही उन्हें देश छोड़े दशकों बीत गए हों लेकिन उन्होंने रिश्ता नहीं तोड़ा है.

भारत में कोरोना महामारी

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प्राइवेट सेक्टर का आगे आना

देविका मेहंदीरट्टा भारतीय मूल की अर्थशास्त्री हैं. वे सिंगापुर में रहती हैं. इस हफ़्ते भारत में उनके संयुक्त परिवार के दो लोगों की मौत हो गई.

उनका मानना है कि भारत सरकार की लापरवाही भरे रवैये के कारण कोरोना महामारी की दूसरी लहर ज़्यादा ख़तरनाक है और इससे मरने वालों की संख्या बढ़ रही है.

वो कहती हैं, "ये केवल मरने वालों की बढ़ती संख्या की बात नहीं है. ये इसलिए गंभीर हो जाता है कि लोग ऑक्सीजन जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं."

देविका का कहना है कि केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियों पर ध्यान देना ज़रूरी समझा, कुंभ मेले के आयोजन को लेकर आंख बंद कर ली जबकि सरकार को फ़रवरी की शुरुआत में अस्पतालों में ऑक्सीजन के इंतज़ाम पर ध्यान देना चाहिए था.

वो कहती हैं, "लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया. इसलिए प्राइवेट सेक्टर को आगे बढ़कर आना पड़ रहा है."

भारत के स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्ष वर्धन ने सरकार की कोशिशों का बचाव किया है. उनका कहना है कि भारत में मृत्यु दर दुनिया में सबसे कम है और ऑक्सीजन की आपूर्ति भी पर्याप्त है.

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कोरोना वायरस का पीक भारत में आ गया या आना बाकी है?

वैश्विक नज़रिया अपनाने की ज़रूरत

देश में घरेलू कंपनियों से महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद माँगी जा रही है.

जिंदल स्टील ने अपने कारख़ाने में स्टील का उत्पादन कम कर दिया है ताकि ऑक्सीजन की आपूर्ति ज़रूरतमंद मरीज़ों को की जा सके.

बीबीसी को एक बयान में जिंदल स्टील ने बताया कि उनकी कंपनी अपने प्लांट के पास बड़े कोविड सेंटर्स बना रही हैं जहां मरीज़ों को पाइपलाइन से ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सकेगी.

टाटा समूह, रिलायंस और डेलीवरी जैसी कंपनियां भी आगे आई हैं.

जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर पवित्र सूर्यनारायण कहते हैं, "भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में संसाधनों की बड़ी कमी रही है. ये एक लंबे समय से चली आ रही समस्या है."

पवित्र सूर्यनारायण का कहना है कि भारत के संकट के लिए एक वैश्विक नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है.

"अगर आप भारत को अकेले छोड़ देते हैं तो ये वायरस आपको फिर काटने के लिए चला आएगा. आप पैसा दे सकते हैं लेकिन आप रातों रात स्वास्थ्य क्षेत्र में बुनियादी ढांचा नहीं खड़ा कर सकते हैं."

"यहां तक कि पर्याप्त ऑक्सीजन का इंतज़ाम और वैक्सीन उत्पादन में तेज़ी लाने में भी कुछ हफ़्ते लगेंगे. तब तक भारत को स्याह सच्चाइयों से रूबरू रहना पड़ेगा."

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हम ऐसी बेबसी के आलम में आ गए हैं

बी बी सी  हिंदी से साभार ; 

कोरोना की दूसरी लहर से मोदी और इंडिया की इमेज को कितना धक्का लगा?

  • ज़ुबैर अहमद
  • बीबीसी संवाददाता दिल्ली

"सवाल ये है कि वहां से अब हम यहाँ तक कैसे पहुंच गए?" ये प्रश्न उठा रहे हैं अनुभवी भारतीय राजनयिक राजीव डोगरा, जिन्होंने भारत की विदेश नीति पर कई किताबें लिखी हैं और कई देशों में भारत के राजदूत रह चुके हैं.

'वहां से' उनका मतलब है जब भारत ने घोषणा कर दी थी कि उसे विदेशी सहायता लेना बंद कर दिया है, 'यहाँ तक' से उनका अर्थ है अब उस नीति में बदलाव करके महामारी में भारत फिर से विदेशी मदद लेने लगा है.

वो आगे कहते हैं, "हम साल 2000 से ये सोचने लगे थे कि क्या हमें विदेशी सहायता लेनी चाहिए, हमारी जो बैठकें होती थीं उनमें ये विचार होता था कि जब हम विश्व को बचा सकते हैं तो हम हाथ क्यों फैला रहे हैं?''

इटली और रोमानिया में भारत के राजदूत रह चुके राजीव डोगरा कहते हैं कि 2004 में आई सुनामी के समय देश ने बाहर से सहायता लेने के बजाय कई देशों की सहायता की.

डोगरा कहते हैं, "2004 में जो सुनामी आई उसने कई देशों में तबाही मचाई, हमारे यहाँ भी अंडमान निकोबार और तमिलनाडु में तबाही मची. फिर भी सरकार ने कहा कि हम एक ऐसी मंज़िल पर पहुँच गए हैं जिसमें हमारा एक इम्तिहान ज़रूर है, पर हम इसे पास कर लेंगे, हम किसी से मांगेंगे नहीं जाएँगे, बल्कि हम देंगे. भारत ने दक्षिण-पूर्वी देशों को तकनीकी सहायता दी, जहाज़ भेजे सुनामी की तबाही से निपटने के लिए और कई तरह की मदद दी और उन देशों के लिए 'अर्ली वार्निंग सिस्टम' भी बनाया.''

विदेश से मदद लेने पर लोगों की मायूसी की एक झलक विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर के 8 मई के ट्वीट पर दर्ज प्रतिक्रियाओं में देखने को मिली.

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भारत को मिल रही विदेशी मदद आख़िर जा कहाँ रही है?

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची के चार ट्वीट पोस्ट को साझा करके उन्होंने एक ट्वीट किया, "अमेरिका से सिंगापुर, जर्मनी से थाईलैंड तक, दुनिया भारत के साथ है''. बागची ने अपने ट्वीट में तस्वीरों के साथ ये जानकारी दी थी कि कोरोना की दूसरी लहर से जूझने के लिए कई देश जो रेमडेसिवीर, ऑक्सीजन सिलिंडर और ऑक्सीजन प्लांट और कॉन्सेंट्रेटर जैसी मदद भेज रहे हैं वो भारत पहुँच रही है."

डॉक्टर जयशंकर के ट्वीट पर लोग इस बात से नाराज़ थे कि दूसरे देशों की मदद करने वाला देश भारत, अब विदेश से मदद ले रहा है. दीक्षा नितिन राउत नाम की एक महिला ने विदेश मंत्री के ट्वीट के जवाब में ये ट्वीट किया, "अमेरिका से सिंगापुर, जर्मनी से थाईलैंड हमारी मदद कर रहा है क्योंकि हम अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं, यह सम्मान का बिल्ला नहीं है. यह हमें नाकाम बना रहा है. यह आत्मनिर्भरता नहीं नहीं है."

कई ट्वीट्स में विदेशी मदद लेने की वजह से भारत की गरिमा को ठेस पहुँचने की बात की गई.

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मोदी से मायूसी?

नागरिकों में आम धारणा ये थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आत्मनिर्भर बना दिया है, दो स्वदेशी टीकों के आने के बाद इस धारणा को बल भी मिला. लोग मान रहे थे कि इस संकट का मुक़ाबला भारत खुद कर लेगा. प्रधानमंत्री ने वैक्सीन मैत्री योजना के बारे में देश को गर्व से बताया कि भारत अब पहले जैसा भारत नहीं है बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय ताक़त है, लेकिन महामारी के संकट से निपटने के लिए विदेश से ली गई सहायता ने उनके राष्ट्रीय गौरव को चोट पहुंचाई है.

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कोरोना संकट से 'ब्रांड मोदी' कितना बड़ा झटका?

जनवरी में पीएम मोदी ने विश्व आर्थिक मंच की दावोस सभा में दुनिया को संबोधित करते हुए बुलंद आवाज़ में कहा था कि भारत ने कोरोना महामारी पर काबू पा लिया है और इस तरह से विश्व को एक बड़े संकट से बचा लिया है. उन्होंने ये भी दावा किया था कि उनकी सरकार ने महामारी से निपटने के लिए एक मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली बना ली है. दुनिया ने उनकी बातों पर यक़ीन कर लिया.

प्रधानमंत्री की दावे करने की आदत पर उनकी पहले भी आलोचना हुई है. राजीव डोगरा कहते हैं कि डॉक्टर मनमोहन सिंह अपने कामों का प्रचार कम करते थे. उनके अनुसार ध्यान देने वाली बात ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार ने जो भी सहायता की वो "भोंपू लगा कर या इश्तेहार करके नहीं की, इसके बावजूद सुनामी के समय विदेश में ये बात फैल गई कि भारत ने कितना अच्छा क़दम उठाया है."

अब विदेशी मीडिया दिखा रहा है कि किस तरह कोरोना महामारी की घातक दूसरी लहर भारत में कहर ढा रही है, जिससे इसकी नाजुक स्वास्थ्य प्रणाली नष्ट होने के कगार पर है. शमशान घाटों में जगह कम पड़ने पर चिताएं मैदान में जलाई जा रही हैं. मरीज़ ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं, आईसीयू बेड और कई चिकित्सा सहायता के अभाव में मर रहे हैं और शव नदियों में बह रहे हैं.

वो ये भी बता रहे हैं कि मोदी सरकार इस संकट से निपटने में पूरी तरह से नाकाम है. दर्जनों देश चिकित्सा सहायता भेज रहे हैं जिनमें से कई उपहार के रूप में और कुछ वाणिज्यिक लेन-देन के रूप में भेज रहे हैं.

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कोरोना से बेहाल पीएम मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी

विश्व भर में प्रसिद्ध चिकित्सा पत्रिका लांसेट ने हाल में अपने संपादकीय में प्रधानमंत्री मोदी की कड़ी आलोचना की है. पत्रिका का कहना था कि "मोदी सरकार संकट को रोकने पर ध्यान देने के बजाय अपने ख़िलाफ़ आलोचना और खुली बहस को दबाने में अधिक समय लगा रही है जो अक्षम्य है."

मोदी प्रशासन ने विदेशी सहायता को सही ठहराने की कोशिश की है. देश के शीर्ष राजनयिक हर्षवर्धन श्रृंगला ने विदेशी सहायता पर कहा, "हमने सहायता दी है और अब हमें मदद मिल रही है." उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह भारत की अंतरराष्ट्रीय साख का संकेत है कि देश में कितनी विदेशी सहायता आ रही है.

राजीव डोगरा के मुताबिक़ हकीकत ये है कि आज के टेक्नोलॉजी के दौर में चीज़ें अधिक समय तक छिप नहीं सकतीं. वो कहते हैं, "अगर आपकी नदियों में शव बह रहे हैं, ड्रोन हवा में उड़ते हुए उनकी तस्वीर ले लेते हैं अगर बड़ी संख्या में शव बह रहे हैं तो ये इंडिया की अच्छी छवि तो नहीं दिखाता है न? अगर सामूहिक तौर पर चिताएं जल रही है तो वो भी देश की अच्छी तस्वीर पेश नहीं करता अगर हालत ख़राब नहीं होती तो अस्पतालों पर इतना प्रेशर नहीं होता. इसी कारण दुनिया में भारत की छवि पर फ़र्क़ तो पड़ रहा है."

भारतीय मूल के लोगों में मायूसी?

विदेश में बसे भारतीय मूल के लोग प्रधानमंत्री मोदी के सबसे जबरदस्त समर्थकों में से माने जाते रहे हैं. लेकिन अब उस समुदाय में मोदी की क्षमता पर बहस शुरू हो गई है.

22 सितंबर 2019 को अमेरिका के शहर ह्यूस्टन के एक विशाल स्टेडियम में भारतीय मूल के हज़ारों लोगों ने नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त जोश के साथ स्वागत किया था. तब मोदी का क़द आसमान को छू रहा था. उत्साह से भरे न्यूयॉर्क में बसे भारतीय मूल के योगेंद्र शर्मा भी 'हाउडी मोदी' समारोह में अपनी गर्लफ्रेंड के साथ गए थे.

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COVER STORY: कोरोना से जूझ रहे भारत की मदद के लिए साथ आए ब्रिटेन के हिंदू-मुसलमान

शर्मा कहते हैं, "उस समय हम सब मोदी के अंधे भक्त थे. हमारा परिवार नोएडा में रहता है, वो भी भारत में बैठे हमें ह्यूस्टन जाने के लिए जोश दिला रहे थे. लेकिन भारत में जो संकट आया है और मोदी के नेतृत्व वाली सरकार जिस तरह से कोरोना से मरने वालों को बचाने में विफल रही है और जिस तरह से हम अब हर देश के आगे मदद के लिए हाथ फैला रहे हैं उससे मोदी और भारत दोनों का क़द छोटा हुआ है".

उनका कहना था कि भारत में केवल उनके परिवार और परिचित कोरोना से नहीं मरे हैं बल्कि उनके जानने वाले कई दोस्तों के सगे-संबंधी भी अपनी जान गँवा चुके हैं. "यहाँ अब मोदी हीरो से ज़ीरो हो चुके हैं''

तारीफ़ और आलोचना

अचल मल्होत्रा आर्मीनिया में भारत के राजदूत रह चुके हैं और अब विदेश नीति पर लिखते रहते हैं. वो कहते हैं कि सभी विश्व नेताओं के लिए, प्रशंसा और आलोचना, उनके राजनीतिक करियर का हिस्सा है. "पीएम मोदी ने जिस तरह से महामारी के वैश्विक आयामों का अनुमान लगाया और ठोस उपायों के माध्यम से अन्य देशों को सहायता देने के तरीके पर जोर दिया, उस तरीके की व्यापक स्वीकार्यता है. दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत ने पहली लहर को अच्छी तरह से संभाला."

उनके अनुसार दुनिया के अधिकांश नेताओं को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा है. उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय पीएम मोदी को कोरोना संकट के दौरान कथित दुष्प्रचार के बावजूद समग्रता में जज करेगा, जिनमें उनकी पूरी भूमिका और वैश्विक मामलों में उनका योगदान शामिल है."

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दिलचस्प बात ये है कि पीएम मोदी का बचाव चीन के एक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी भी करते हैं. सिचुआन विश्वविद्यालय में द स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर हुआंग युन सॉन्ग बीबीसी से एक बातचीत में कहते हैं, "पीएम मोदी संभवत: भारत के अब तक के सबसे मजबूत नेता हैं, ज़्यादा उम्मीद है कि उनकी ये छवि चीनी शिक्षाविदों और पेशेवरों के बीच बनी रहेगी."

प्रोफ़ हुआंग युनसॉन्ग के अनुसार संकट के समय में अमेरिका जैसे बड़े और विकसित देश भी विदेशी मदद लेने के लिए मजबूर हो सकते हैं. वो कहते हैं, "इसमें कोई शक नहीं कि यहां हम सबको आश्चर्य हुआ है कि किस तरह से पीएम मोदी ने कॉमन सेंस और वैज्ञानिक दिशानिर्देशों के खिलाफ महामारी से निपटने की कोशिश की और उसके बाद भारत में जो हो रहा है उससे हमें दुख है."

प्रधानमंत्री को उनकी सलाह ये थी, "हमें उम्मीद है कि पीएम मोदी देश और विदेश दोनों जगहों से आलोचना से सबक़ लेंगे, ताकि सुशासन सुनिश्चित करने के लिए अपने राज्य के काम और क्षमता में सुधार कर सकें."

वैक्सीन मैत्री की मुहिम

अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषकों के मुताबिक़, इस बात को जाने दें कि कैसे भारत ने 2004 में विदेशी मदद लेनी बंद कर दी थी और अब लेने लगा है. उनके अनुसार कुछ महीने पहले तक भी भारत उन बड़े देशों में शामिल था जो दूसरे ज़रूरतमंद देशों की सहायता कर रहा था.

भारत ने पिछले साल महामारी से निमटने के लिए 100 से अधिक देशों को दवाएं भेजीं और पड़ोसियों की सहायता के लिए आसान शर्तों पर क़र्ज़ दिए.

भारत उन फ्रंटलाइन देशों में शामिल था जो कोरोना टीके की वैश्विक मुहिम में शामिल था. अप्रैल के शुरू में कोरोना की दूसरी लहर से हो रही तबाही के बाद लोगों को ये समझ में आया कि मोदी सरकार ने इससे निपटने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए थे. पीड़ित लोग मोदी से जवाब मांग रहे हैं कि "हम यहाँ तक कैसे पहुंचे कि आज हमें दूसरे देशों से मदद मांगनी पड़ रही है'.

मोदी सरकार ने इस इस वैश्विक टीकाकरण की मुहिम के अंतर्गत जो मदद देनी शुरू की थी उसका नाम "वैक्सीन मैत्री" रखा था. भारत ने दर्जनों देशों को वैक्सीन सप्लाई भी की, लेकिन इस बात का ख्याल नहीं रखा गया कि देश के 135 करोड़ आबादी के लिए वैक्सीन काफ़ी मात्रा में कैसे उपलब्ध हो सकेगा, जैसा कि दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अपने एक हाल के ट्वीट में कहा, "विदेशों में बेचने के लिए केंद्र के पास 6.5 करोड़ वैक्सीन थे, और जब राज्य मांगे तो केवल 3.5 लाख. बीजेपी बताये कि अपने देश के लोगों में को मरता छोड़कर विदेशों में वैक्सीन बेचने की आखिर क्या मजबूरी है?"

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पूर्व राजदूत अचल मल्होत्रा कहते हैं कि वैक्सीन मैत्री की मुहिम को अभी के परिपेक्ष में देखना मुनासिब नहीं होगा. वो कहते हैं, "मेरा दृढ़ मत है कि अतीत में लिए गए किसी भी निर्णय को उस स्थिति की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, जो उस समय था, यह एक सही निर्णय था जब इसे घरेलू आवश्यकताओं के लिए और विदेशी खपत के लिए टीके के कैलिब्रेटेड सप्लाई के आकलन के आधार पर लिया गया था."

लेकिन वो वैक्सीन मैत्री पर उठने वाले सवालों को भी समझते हैं. वो कहते हैं, "दूसरी लहर ने अचानक परिदृश्य को बदल दिया है जब टीके की सप्लाई हमारी निरंतर आवश्यकताओं के साथ तालमेल नहीं रख पा रही हैं, इसलिए वैक्सीन मैत्री को लॉन्च करने की बुद्धिमता पर कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं, हालाँकि वैक्सीन मैत्री भारत को लाभ मिला है. वास्तव में वैक्सीन मैत्री से पैदा हुई साख ने विदेशी सहयोगियों से मिलने वाली मदद सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई."

लेकिन राजीव डोगरा के मुताबिक़ ये भी एक सच है कि दुनिया भर में वैक्सीन फैक्ट्री की भारत की छवि को भी क्षति पहुंची है. दूसरे देशों को वैक्सीन बेचने या भेंट करने वाला देश आज वैक्सीन दूसरों से मांग रहा है.

कितना नुकसान

विशेषज्ञों के अनुसार भारत की पिछले कुछ हफ़्तों में बड़ी बदनामी हुई है. प्रधानमंत्री मोदी की क्षमता पर सवाल उठाए गए हैं लेकिन अगर तीसरी लहर के लिए तैयारी अभी से सही ढंग से की गई तो बिगड़ी छवि सुधर सकती है. चीन के प्रोफेसर हुआंग युनसॉन्ग के विचार में देश की शक्ति को वक़्ती मजबूरी के चश्मे से नहीं देखना चाहिए.

वो कहते हैं, "किसी देश की शक्ति, क्षमता या छवि को उसके विदेशी सहायता स्वीकार करने पर जज करना अनुचित है. ज़रुरत पड़ने पर आपातकालीन समय में अमेरिका और कई बड़े देश खुद को विदेशों की सहायता लेने की स्थिति में पाते हैं."

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COVER STORY: क्या वैक्सीन ही अब भारत को बचा सकता है?

राजीव डोगरा कहते हैं कि मुंबई एक उदाहरण है जिसने पिछले साल धारावी में आए संकट और इस बार के संकट से कितनी अच्छी तरह निबटा है. उनके विचार में अगर मुंबई का फ़ॉर्मूला देश के दूसरे शहरों और राज्यों में अपनाया जाता तो विदेश से आज सहायता लेने की ज़रुरत न पड़ती.

वे कहते हैं, "मुंबई ने ये मिसाल क़ायम कर दी कि विकेंद्रीकरण करके, सीमित साधन के साथ महामारी से कैसे निपटा जा सकता है. इसे राष्ट्रीय स्तर पर दोहराना असंभव नहीं था. ये सब देखते हुए अब ऐसी स्थिति में हैं की हर जगह हाथ फैला रहे हैं. हम ऐसी बेबसी के आलम में आ गए हैं कि कई सवाल खड़े होते हैं. हमें खुद से पूछना चाहिए कि एक आत्मविश्वास से भरा देश जो उभरते स्टार की तरह था, जो चीन के साथ मुक़ाबला करना चाहता था, वो अब एक ऐसी स्थिति में आ गया है कि विदेशी मदद ले रहा है."

दूसरी लहर के कहर से भारत और पीएम मोदी की छवि को कितना नुकसान हुआ है इस पर लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन मोटे तौर पर यह ज़रूर है कि कोई यह नहीं कह रहा कि मार्च 2020 से मार्च 2021 के बीच भारत ने वो सब किया, जो उसको करना चाहिए था.

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